Friday, September, 26,2025

'कानून बनाने में राज्यपालों की भूमिका नहीं'

नई दिल्ली: विधानसभा में पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी की समय सीमा तय करने वाली राज्यों की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को लगातार सातवें दिन सुनवाई हुई।

न्यायाधीशों ने कहा कि गवर्नर बिलों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। सुनवाई के दौरान गैर भाजपा शासित प्रदेशों पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की सरकारों की ओर से दलीलें दी गईं। उनकी ओर से कहा गया कि कानून बनाना विधानसभा का काम है, इसमें राज्यपालों की कोई भूमिका नहीं है। वे केवल औपचारिक प्रमुख होते हैं।

टीएमसी शासित पश्चित बंगाल की सरकार ने प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ से कहा कि राज्यपाल संप्रभु की इच्छा पर सवाल नहीं उठा सकते हैं और विधानसभा द्वारा पारित विधेयक की विधायी क्षमता की जांच करने के लिए आगे नहीं बढ़ सकते हैं, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है।

कानून का परीक्षण न्यायालय करे, कार्यपालिका नहीं

पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि जनता की आकांक्षा कार्यपालिका (राज्यपाल और राष्ट्रपति) की मनमर्जी और इच्छाओं के अधीन नहीं हो सकती। कार्यपालिका को कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से प्रतिबंधित किया गया है। पीठ ने पूछा, क्या आपका यह कहना है कि विधेयकों को मंजूरी देनी होगी, भले ही वे विधायी क्षेत्राधिकार के अनुरूप न हों और उनकी वैधता का परीक्षण अदालतों में किया जा सकता है? सिब्बल ने कहा कि किसी कानून की संवैधानिकता का परीक्षण न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए, न कि कार्यपालिका द्वारा। उन्होंने कहा कि राज्यपालों को विधेयकों पर तत्काल निर्णय लेना होगा, न कि तीन या छह महीने की अवधि में।

पीठ ने पूछा विधेयक के विरोधाभासी होने पर सवाल

पीठ ने पूछा कि क्या राज्यपाल को केन्द्रीय कानून के साथ विधेयक के विरोधाभासी होने के मामलों में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। पीठ ने कहा कि तब राज्यपाल को यह देखने के लिए अपने विवेक का इस्तेमाल करना होगा कि विधेयक विरोधाभासी है या नहीं, हालांकि कोई भी व्यक्ति रूपरेखा पर तर्क दे सकता है, लेकिन राज्यपाल केवल एक डाकिया या एक सुपर विधायी निकाय नहीं हो सकते।

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