Friday, June, 27,2025

सेवानिवृत्ति के बाद पद लेने से होती है नैतिक चिंता: गवई

नई दिल्ली: प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी आर गवई ने कहा है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचार की घटनाओं से जनता के भरोसे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे पूरी व्यवस्था की शुचिता में विश्वास कम हो सकता है। ब्रिटेन के उच्चतम न्यायालय में 'मॅटेनिंग जूडिशयल लेजिटिमेसी एंड पब्लिक कॉन्फिडेंस' विषय पर आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के बाद की जाने वाली नौकरियों के बारे में भी बात की। उन्होंने कहा कि अगर कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सरकार में कोई अन्य नियुक्ति प्राप्त करता है या चुनाव लड़ने के लिए पीठ से इस्तीफा देता है तो इससे गंभीर नैतिक चिंता पैदा होती है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि जब भी भ्रष्टाचार और कदाचार के ये मामले सामने आए हैं, सुप्रीम कोर्ट ने लगातार कदाचार को दूर करने के लिए तत्काल और उचित उपाय किए हैं। उन्होंने कहा कि हर प्रणाली, चाहे वह कितनी भी मजबूत क्यों न हो, पेशेवर कदाचार के लिहाज से अतिसंवेदनशील होती है।

बाहरी नियंत्रण से मुक्त हो न्यायाधीश

सीजेआई गवई ने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए। न्यायाधीशों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए।

सत्ता के सामने सच्चाई रख सके न्यायपालिका

प्रधान न्यायाधीश की यह टिप्पणी इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा पर भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में आई है। वर्मा के दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास से बड़ी मात्रा में नकदी बरामद की गई थी। सीजेआई गवई ने कहा कि प्रत्येक लोकतंत्र में, न्यायपालिका को न केवल न्याय प्रदान करना चाहिए, बल्कि उसे एक ऐसी संस्था के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता के सामने सच्चाई को रख सकती है।

कॉलेजियम प्रणाली को उचित ठहराया

गवई ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को भी उचित ठहराया और कहा कि 1993 तक, सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता था। उन्होंने कहा कि इस अवधि के दौरान कार्यपालिका ने दो बार सीजेआई की नियुक्ति में वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार कर दिया जो स्थापित परंपरा के विरुद्ध है। कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य कार्यपालिका के हस्तक्षेप को कम करना और नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाए रखना है।

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