Wednesday, November, 26,2025

सेवानिवृत्ति के बाद नहीं लूंगा पदः गवई

नई दिल्ली: निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी. आर. गवई ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली का रविवार को पुरजोर बचाव किया, अनुसूचित जाति (एससी) कोटा से संपन्न लोगों को बाहर रखने का समर्थन किया और शीर्ष अदालत में अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी महिला न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करने पर खेद व्यक्त किया।

अपने आधिकारिक आवास पर पत्रकारों के साथ अनौपचारिक बातचीत में जस्टिस गवई ने कहा कि वह संस्था को पूर्ण संतुष्टि और संतोष की भावना के साथ छोड़ रहे हैं तथा सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी कार्यभार स्वीकार नहीं करने का अपना संकल्प दोहराया। वह पहले बौद्ध सीजेआई होने के अलावा के. जी. बालकृष्णन के बाद भारतीय न्यायपालिका का नेतृत्व करने वाले दूसरे दलित हैं।

निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश ने कहा, मैंने पदभार ग्रहण करते समय ही स्पष्ट कर दिया था कि मैं सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी आधिकारिक कार्यभार स्वीकार नहीं करूंगा। अगले 9 से 10 दिन 'कूलिंग ऑफ' अवधि है। उसके बाद एक नयी पारी।

जस्टिस गवई ने अनुसूचित जातियों के संपन्न लोगों को आरक्षण के लाभों से वंचित करने के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने पर अपने विचारों का पुरजोर बचाव करते हुए उन्होंने कहा कि अगर ये लाभ बार-बार एक ही परिवार को मिलते रहेंगे, तो वर्ग के भीतर वर्ग उभर आएगा। आरक्षण उन लोगों तक पहुंचना चाहिए जिन्हें इसकी सचमुच जरूरत है। उन्होंने सवाल किया, अगर किसी मुख्य सचिव के बेटे या गांव में काम करने वाले भूमिहीन मजदूर के बच्चे को किसी आईएएस या आईपीएस अधिकारी के बेटे से प्रतिस्पर्धा करनी पड़े तो क्या यह समान स्तर पर होगा? हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि इस मुद्दे पर अंतिम निर्णय "सरकार और संसद को लेना है। कॉलेजियम प्रणाली का पुरजोर बचाव करते हुए उन्होंने कहा कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने में मदद करती है।

विधेयकों पर राज्यपालों के निर्णयों से जुड़ी समय-सीमा के मुद्दे पर जस्टिस गवई ने कहा कि संविधान न्यायालय को ऐसी समय-सीमा की व्याख्या करने की अनुमति नहीं देता, जहां कोई समय-सीमा मौजूद ही न हो। लेकिन हमने कहा है कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक को रोक कर नहीं रख सकते। अत्यधिक विलंब होने पर न्यायिक समीक्षा का विकल्प उपलब्ध है। लंबित मामलों को एक बड़ी समस्या बताते हुए, उन्होंने कहा कि उनके नेतृत्व में शीर्ष अदालत ने मामलों को श्रेणीबद्ध किए जाने और वर्गीकरण के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) का उपयोग शुरू किया और इससे निपटना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

सरकार के खिलाफ फैसला देने पर ही जज स्वतंत्र होता है, यह धारणा गलत

जस्टिस गवई ने इस आम धारणा को गलत बताकर खारिज कर दिया कि न्यायाधीश को तब तक आजाद नहीं माना जा सकता, जब तक वह सरकार के खिलाफ फैसला न सुनाए। उन्होंने कहा कि आप यह तय नहीं करते कि मुकदमा दायर करने वाली सरकार है या कोई आम नागरिक। आप अपने सामने मौजूद दस्तावेजों के हिसाब से फैसला करते हैं। उन्होंने कहा कि आज के समय में, किसी न्यायाधीश को 'स्वतंत्र' तभी कहा जाता है, जब फैसला सरकार के खिलाफ दिया गया हो। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में अवसंरचना के विकास के लिए हमें सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। हमारे पास पैसे की शक्ति नहीं है। इसलिए, कभी-कभी टकराव हो सकता है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि लगातार टकराव की जरूरत है। इससे अनावश्यक समस्याएँ उत्पन्न होंगी। केंद्र के सहयोग का जिक्र करते हुए जस्टिस गवई ने बताया कि उनके कार्यकाल के दौरान सरकार ने कॉलेजियम की ओर से सुझाए गए लगभग सभी नामों को मंजूरी दी।

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